कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है
मै तुझसे दूर कैसा हू तू मुझसे दूर कैसी है
ये मेरा दिल समझता है या तेरा दिल समझता है
मोहबत्त एक अहसासों की पावन सी कहानी है
कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है
यहाँ सब लोग कहते है मेरी आँखों में आसूं है
जो तू समझे तो मोती है जो ना समझे तो पानी है
मै जब भी तेज़ चलता हू नज़ारे छूट जाते है
कोई जब रूप गढ़ता हू तो सांचे टूट जाते है
मै रोता हू तो आकर लोग कन्धा थपथपाते है
मै हँसता हू तो अक्सर लोग मुझसे रूठ जाते है
समंदर पीर का अन्दर लेकिन रो नहीं सकता
ये आसूं प्यार का मोती इसको खो नहीं सकता
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नहीं पाया वो तेरा हो नहीं सकता
भ्रमर कोई कुम्दनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोह्बत्त का
मै किस्से को हक्कीकत में बदल बैठा तो हंगामा
बहुत बिखरा बहुत टूटा थपेडे सह नहीं पाया
हवाओं के इशारों पर मगर मै बह नहीं पाया
अधूरा अनसुना ही रह गया ये प्यार का किस्सा
कभी तू सुन नहीं पाई कभी मै कह नहीं पाया
Sunday, February 8, 2009
Wednesday, January 21, 2009
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
प्रणय-पत्रिका (प्रथम प्रकाशन-1955)
कविता क्रमांक-10
डॉ हरिवंश राय बच्चन
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अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
पंख उगे थे मेरे जिस दिन तुमने कन्धे सहलाए थे,
जिस-जिस दिशि-पथ पर मैं विहरा एक तुम्हारे बतलाये थे,
विचरण को सौ ठौर, बसेरे को केवल गल्बांह तुम्हारी,
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
ऊँचे-ऊँचे लक्ष्य बनाकर जब-जब उनको छू कर आता,
हर्ष तुम्हारे मन का मेरे, मन का प्रतिद्वन्दी बन जाता.
और जहाँ मेरी असफलता मेरी विव्हलता बन जाती,
वहाँ तुम्हारा ही दिल बनता मेरे दिल का एक दिलासा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
नाम तुम्हारा ले लूँ, मेरे स्वप्नों की नामावली पूरी,
तुम जिससे सम्बद्ध नहीं वह काम अधूरा, बात अधूरी,
तुम जिसमे डोले वह जीवन, तुम जिसमे बोले वह वाणी,
मुर्दा-मूक नहीं तो मेरे सब अरमान, सभी अभिलाषा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
तुमसे क्या पाने को तरसा करता हूँ कैसे बतलाऊँ,
तुमको क्या देने को आतुर रहता हूँ कैसे जतलाऊँ,
यह चमड़े की जीभ पकड़ कब पाती है मेरे भावों को,
इन गीतों में पंगु स्वर्ग में नर्तन करने वाली भाषा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
कविता क्रमांक-10
डॉ हरिवंश राय बच्चन
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अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
पंख उगे थे मेरे जिस दिन तुमने कन्धे सहलाए थे,
जिस-जिस दिशि-पथ पर मैं विहरा एक तुम्हारे बतलाये थे,
विचरण को सौ ठौर, बसेरे को केवल गल्बांह तुम्हारी,
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
ऊँचे-ऊँचे लक्ष्य बनाकर जब-जब उनको छू कर आता,
हर्ष तुम्हारे मन का मेरे, मन का प्रतिद्वन्दी बन जाता.
और जहाँ मेरी असफलता मेरी विव्हलता बन जाती,
वहाँ तुम्हारा ही दिल बनता मेरे दिल का एक दिलासा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
नाम तुम्हारा ले लूँ, मेरे स्वप्नों की नामावली पूरी,
तुम जिससे सम्बद्ध नहीं वह काम अधूरा, बात अधूरी,
तुम जिसमे डोले वह जीवन, तुम जिसमे बोले वह वाणी,
मुर्दा-मूक नहीं तो मेरे सब अरमान, सभी अभिलाषा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
तुमसे क्या पाने को तरसा करता हूँ कैसे बतलाऊँ,
तुमको क्या देने को आतुर रहता हूँ कैसे जतलाऊँ,
यह चमड़े की जीभ पकड़ कब पाती है मेरे भावों को,
इन गीतों में पंगु स्वर्ग में नर्तन करने वाली भाषा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.
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