Saturday, February 28, 2015

देर लगी लेकिन -- जावेद अख़्तर, जिंदगी ना मिले दुबारा

देर  लगी  लेकिन
मैंने  अब  है
जीना  सीख  लिया
जैसे  भी  हों   दिन
मैंने  अब  है
जीना  सीख  लिया
अब  मैंने …
यह  जाना  है
ख़ुशी  है  क्या
ग़म  क्या
दोनों  ही
दो  पल  कि  हैं  रुतें
ना  यह  ठहरें  ना  रुकें
ज़िन्दगी  दो  रंगों  से  बने
अब  रूठे  अब  मने
यही  तो  है
यही  तो  है
यहाँ ……..
देर  लगी  लेकिन
मैंने  अब  है
जीना  सीख  लिया
आंसुओं  के  बिन
मैंने  अब  है
जीना  सीख  लिया
अब  मैंने ….
यह  जाना  है
किसे  कहूं  अपना
है  कोई
जो  यह  मुझसे  कह  गया
यह  कहाँ  तू  रह  गया
ज़िन्दगी  तो  है  जैसे  कारवां
तू  है  तनहा  कब  यहाँ
सब  ही  तो  हैं
सब  ही  तो  हैं
यहाँ …..
कोई  सुनाये  जो
हंसती  मुस्कराती  कहानी
कहता  है  दिल
मै  भी  सुनु
आंसुओं  के  मोती  हों
जो  किसी  कि  निशानी
कहता  है  दिल
मै  भी  चुनुं
बाहें  दिल  कि
हों  बाँहों  में
चलता  चलूँ
युहीं  राहों  में
बस  युहीं
अब  यहाँ
अब  वहां
देर  लगी  लेकिन
मैंने  अब  है
जीना  सीख  लिया
आंसुओं  के  बिन
मैंने  अब  है
जीना  सीख  लिया
है  कोई
जो  यह  मुझसे  कह  गया
यह  कहाँ  तू  रह  गया
ज़िन्दगी  तो  है  जैसे  कारवां
तू  है  तनहा  कब  यहाँ
सब  ही  तो  हैं
सब  ही  तो  हैं
यहाँ …..
सब  ही  तो  हैं
सब  ही  तो  हैं
यहाँ ….
सब  ही  तो  हैं
सब  ही  तो  हैं
यहाँ …….

नर हो न निराश करो मन को -- मैथिलीशरण गुप्त

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।

संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।

-- मैथिलीशरण गुप्त