Wednesday, January 21, 2009

अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

प्रणय-पत्रिका (प्रथम प्रकाशन-1955)
कविता क्रमांक-10
डॉ हरिवंश राय बच्चन
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अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

पंख उगे थे मेरे जिस दिन तुमने कन्धे सहलाए थे,
जिस-जिस दिशि-पथ पर मैं विहरा एक तुम्हारे बतलाये थे,
विचरण को सौ ठौर, बसेरे को केवल गल्बांह तुम्हारी,
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

ऊँचे-ऊँचे लक्ष्य बनाकर जब-जब उनको छू कर आता,
हर्ष तुम्हारे मन का मेरे, मन का प्रतिद्वन्दी बन जाता.
और जहाँ मेरी असफलता मेरी विव्हलता बन जाती,
वहाँ तुम्हारा ही दिल बनता मेरे दिल का एक दिलासा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

नाम तुम्हारा ले लूँ, मेरे स्वप्नों की नामावली पूरी,
तुम जिससे सम्बद्ध नहीं वह काम अधूरा, बात अधूरी,
तुम जिसमे डोले वह जीवन, तुम जिसमे बोले वह वाणी,
मुर्दा-मूक नहीं तो मेरे सब अरमान, सभी अभिलाषा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

तुमसे क्या पाने को तरसा करता हूँ कैसे बतलाऊँ,
तुमको क्या देने को आतुर रहता हूँ कैसे जतलाऊँ,
यह चमड़े की जीभ पकड़ कब पाती है मेरे भावों को,
इन गीतों में पंगु स्वर्ग में नर्तन करने वाली भाषा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.